कभी शर्मा के , कभी मुस्का के , आचल को सवारा करती थी ,
कभी हम पे क़यामत मरती थी, कभी हम क़यामत पे मरते थे ,
चलते चलते रुक जन, कुर्ती की सलवटों को सुल्जाना ,
भोली सूरत वाली वो ऐसे ही नज़ारा करती थी ,
मिलते ही नजर मुस्का देना और पलकों को जपका देना ,
मस्त निगाहों से अक्सर वो उही इशारा करती थी ,
जब घर से न आना होता था उस का .
तब देर तलक छत पर वो जुल्फ सवार करती थी
लोगों के सौ सौ ताने और बदनामी के अफसाने ,
मेरी खातिर न जाने वो क्या क्या गवारा करती थी....
थी वो मेरी बस मेरे नाम पर मरती थी ....
पलक .....PG
कभी हम पे क़यामत मरती थी, कभी हम क़यामत पे मरते थे ,
चलते चलते रुक जन, कुर्ती की सलवटों को सुल्जाना ,
भोली सूरत वाली वो ऐसे ही नज़ारा करती थी ,
मिलते ही नजर मुस्का देना और पलकों को जपका देना ,
मस्त निगाहों से अक्सर वो उही इशारा करती थी ,
जब घर से न आना होता था उस का .
तब देर तलक छत पर वो जुल्फ सवार करती थी
लोगों के सौ सौ ताने और बदनामी के अफसाने ,
मेरी खातिर न जाने वो क्या क्या गवारा करती थी....
थी वो मेरी बस मेरे नाम पर मरती थी ....
पलक .....PG
5 comments:
…वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है
हमें और अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे
बधाई स्वीकारें।
“उसकी आंखो मे बंद रहना अच्छा लगता है
उसकी यादो मे आना जाना अच्छा लगता है
सब कहते है ये ख्वाब है तेरा लेकिन
ख्वाब मे मुझको रहना अच्छा लगता है.”
...रवि
http://meri-awaj.blogspot.com/
मेरी खातिर न जाने वो क्या क्या गवारा करती थी…
Pearl...
तब देर तलक छत पर वो जुलफ संवारा करती थी.. अच्छी कविता है
थी वो मेरी बस मेरे नाम पर मरती थी ....
sach mai ye last line mai jo hai wo mai bayan nahi kar sakta .. really awesome
लोगों के सौ सौ ताने और बदनामी के अफसाने ,
मेरी खातिर न जाने वो क्या क्या गवारा करती थी....
beautifully expressed
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